Thursday, February 4, 2010

शेर दहाड़े या दिन दहाड़े

हम तो समझते थे कि केवल शेर दहाड़ते है अब तो दिन भी दहाड़ने लगे ! मजाक नहीं कर रह हूँ वास्तव में अब दिन भी दहाड़ने लगे है ! अब देखिये न साहब..... दिन दहाड़े चोरी हो रही है , दिन दहाड़े माँ - बहनों कि गले से चेन लूटी जा रही है ! दिन दहाड़े हत्याएं हो रही है! दिन दहाड़े सड़कों पर हिंसा का तांडव हो रहा है ! या मेरे मौला......हाय मेरे अल्लाह !! ये सब चल रहा है दिन दहाड़े ! जैसे शेर के दहाड़ने से आदमी का कलेजा हिलने लगता है वैसे ही अब दिन दहाड़ता है तो हमारी ऊपर कि सांस ऊपर नीचे कि सांस नीचे रह जाती है ! हम घबरा जाते है और फिर घबराहट में उल जुलूल लिखने लग जाते है ! पुराने ज़माने में और नए ज़माने में ये ही फर्क था ! पहले जब अँधेरा होता था, आधी रात के बाद कोई चोर निकलता था, सूनी - सूनी सडको पर.....लेकिन आजकल तो जो काम रात के लिए बने थे वो सब दिन दहाड़े होते है वो भी सूरज चाचू कि और खाखी वर्दी वाले मामू कि निगरानी में........... इस दिन दहाड़े के पीछे कौन है ? जरा गौर फरमाएं , मेरे सरकार ........देखिये भ्रष्टाचार , अपराध तो इस धरती पर हमेशा से रहे है ! लोग पाप भी करते रहे है लेकिन पहले यह सभी काम परदे के पीछे होते थे आदमी चोर कहलाना पसंद नहीं करता था जिसके माथे पर चोरी का तिलक लग जाता था उसकी सात पीढियां केवल शर्म से मर जाती थी ! लेकिन साहब आज तो इज्जत ही उसकी है जिसके पास माल है अब ये माल आया कैसे? ये सोचने का किसके पास वक़्त है ! हर कोई मेरी तरह तो खाली नहीं बैठा सामाजिक नैतिकता के ठेकेदार भी चुप रहते है ! समाज से अन्याय , आतंक और विषमता के खिलाफ लड़ने का दम भरने वाले भी अपने जलसों के लिए चोरबाजारियों के पास चंदा लेने जाते है ! दारु के ठेकेदार को स्वगात्ध्यक्ष बनाते है! पुराने अपराधी से भोजन प्रायोजित करवाते है और ये सारा काम दिन दहाड़े होता है! पहले तो हमे भी रात के सन्नाटे से डर लगता था पर अब तो दिन दहाड़े डर लग रहा है ! न जाने कब हम दिन में सैर सपाटे के लिए घर से निकले और पीछे से हमारा सारा सामान साफ़.........चोरी, हत्या आदि तो खैर छोड़िए...इसे अब मेरा खुदा ही रोक सकता है धरती पर शायद ही किसी में दम हो.......अब तो प्रेम भी दिन दहाड़े होने लगा है अभी कल कि ही बात है हम एक पार्क में जाकर बैठे ही थे और थोडा सुस्ताने कि कोशिश कर ही रहे थे कि पेड़ों के पीछे से विचित्र आवाजे आने लगी जब नज़रें घुमा कर देखे तो बहुत ही अजीब नज़ारा था कई प्रेमी युगल वहां पेड़ कि आड़ में अपनी ही दुनिया में लीन थे! यह सब देख मैंने फिर अपने मौला को याद किया और फिर से पुछा ? हे मेरे मौला तू ही बता "शेर दहाड़े या दिन दहाड़े "
जय हिंद
विनय पाण्डेय

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